मंटो की कहानी खोल दो और कहानी पर आई टिप्पणियां।

[14/05, 8:43 a.m.]shandilya saurabh शांडिल्य सौरभ: –

सआदत हसन मंटो

11 मई 1912

सआदत हसन मंटो की सिहरा देने वाली कहानी..
॥खोल दो॥

अमृतसर से स्पेशल ट्रेन दोपहर दो बजे चली और आठ घंटों के बाद मुगलपुरा पहुंची। रास्ते में कई आदमी मारे गए। अनेक जख्मी हुए और कुछ इधर-उधर भटक गए।

सुबह दस बजे कैंप की ठंडी जमीन पर जब सिराजुद्दीन ने आंखें खोलीं और अपने चारों तरफ मर्दों, औरतों और बच्चों का एक उमड़ता समुद्र देखा तो उसकी सोचने-समझने की शक्तियां और भी बूढ़ी हो गईं। वह देर तक गंदले आसमान को टकटकी बांधे देखता रहा। यूं ते कैंप में शोर मचा हुआ था, लेकिन बूढ़े सिराजुद्दीन के कान तो जैसे बंद थे। उसे कुछ सुनाई नहीं देता था। कोई उसे देखता तो यह ख्याल करता की वह किसी गहरी नींद में गर्क है, मगर ऐसा नहीं था। उसके होशो-हवास गायब थे। उसका सारा अस्तित्व शून्य में लटका हुआ था।

गंदले आसमान की तरफ बगैर किसी इरादे के देखते-देखते सिराजुद्दीन की निगाहें सूरज से टकराईं। तेज रोशनी उसके अस्तित्व की रग-रग में उतर गई और वह जाग उठा। ऊपर-तले उसके दिमाग में कई तस्वीरें दौड़ गईं-लूट, आग, भागम-भाग, स्टेशन, गोलियां, रात और सकीना…सिराजुद्दीन एकदम उठ खड़ा हुआ और पागलों की तरह उसने चारों तरफ फैले हुए इनसानों के समुद्र को खंगालना शुरु कर दिया।

पूरे तीन घंटे बाद वह ‘सकीना-सकीना’ पुकारता कैंप की खाक छानता रहा, मगर उसे अपनी जवान इकलौती बेटी का कोई पता न मिला। चारों तरफ एक धांधली-सी मची थी। कोई अपना बच्चा ढूंढ रहा था, कोई मां, कोई बीबी और कोई बेटी। सिराजुद्दीन थक-हारकर एक तरफ बैठ गया और मस्तिष्क पर जोर देकर सोचने लगा कि सकीना उससे कब और कहां अलग हुई, लेकिन सोचते-सोचते उसका दिमाग सकीना की मां की लाश पर जम जाता, जिसकी सारी अंतड़ियां बाहर निकली हुईं थीं। उससे आगे वह और कुछ न सोच सका।

सकीना की मां मर चुकी थी। उसने सिराजुद्दीन की आंखों के सामने दम तोड़ा था, लेकिन सकीना कहां थी , जिसके विषय में मां ने मरते हुए कहा था, “मुझे छोड़ दो और सकीना को लेकर जल्दी से यहां से भाग जाओ।”

सकीना उसके साथ ही थी। दोनों नंगे पांव भाग रहे थे। सकीना का दुप्पटा गिर पड़ा था। उसे उठाने के लिए उसने रुकना चाहा था। सकीना ने चिल्लाकर कहा था “अब्बाजी छोड़िए!” लेकिन उसने दुप्पटा उठा लिया था।….यह सोचते-सोचते उसने अपने कोट की उभरी हुई जेब का तरफ देखा और उसमें हाथ डालकर एक कपड़ा निकाला, सकीना का वही दुप्पटा था, लेकिन सकीना कहां थी?

सिराजुद्दीन ने अपने थके हुए दिमाग पर बहुत जोर दिया, मगर वह किसी नतीजे पर न पहुंच सका। क्या वह सकीना को अपने साथ स्टेशन तक ले आया था?- क्या वह उसके साथ ही गाड़ी में सवार थी?- रास्ते में जब गाड़ी रोकी गई थी और बलवाई अंदर घुस आए थे तो क्या वह बेहोश हो गया था, जो वे सकीना को उठा कर ले गए?

सिराजुद्दीन के दिमाग में सवाल ही सवाल थे, जवाब कोई भी नहीं था। उसको हमदर्दी की जरूरत थी, लेकिन चारों तरफ जितने भी इनसान फंसे हुए थे, सबको हमदर्दी की जरूरत थी। सिराजुद्दीन ने रोना चाहा, मगर आंखों ने उसकी मदद न की। आंसू न जाने कहां गायब हो गए थे।

छह रोज बाद जब होश-व-हवास किसी कदर दुरुसत हुए तो सिराजुद्दीन उन लोगों से मिला जो उसकी मदद करने को तैयार थे। आठ नौजवान थे, जिनके पास लाठियां थीं, बंदूकें थीं। सिराजुद्दीन ने उनको लाख-लाख दुआऐं दीं और सकीना का हुलिया बताया, गोरा रंग है और बहुत खूबसूरत है… मुझ पर नहीं अपनी मां पर थी…उम्र सत्रह वर्ष के करीब है।…आंखें बड़ी-बड़ी…बाल स्याह, दाहिने गाल पर मोटा सा तिल…मेरी इकलौती लड़की है। ढूंढ लाओ, खुदा तुम्हारा भला करेगा।

रजाकार नौजवानों ने बड़े जज्बे के साथ बूढे¸ सिराजुद्दीन को यकीन दिलाया कि अगर उसकी बेटी जिंदा हुई तो चंद ही दिनों में उसके पास होगी।

आठों नौजवानों ने कोशिश की। जान हथेली पर रखकर वे अमृतसर गए। कई मर्दों और कई बच्चों को निकाल-निकालकर उन्होंने सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया। दस रोज गुजर गए, मगर उन्हें सकीना न मिली।

एक रोज इसी सेवा के लिए लारी पर अमृतसर जा रहे थे कि छहररा के पास सड़क पर उन्हें एक लड़की दिखाई दी। लारी की आवाज सुनकर वह बिदकी और भागना शुरू कर दिया। रजाकारों ने मोटर रोकी और सबके-सब उसके पीछे भागे। एक खेत में उन्होंने लड़की को पकड़ लिया। देखा, तो बहुत खूबसूरत थी। दाहिने गाल पर मोटा तिल था। एक लड़के ने उससे कहा, घबराओ नहीं-क्या तुम्हारा नाम सकीना है?

लड़की का रंग और भी जर्द हो गया। उसने कोई जवाब नहीं दिया, लेकिन जब तमाम लड़कों ने उसे दम-दिलासा दिया तो उसकी दहशत दूर हुई और उसने मान लिया कि वो सराजुद्दीन की बेटी सकीना है।

आठ रजाकार नौजवानों ने हर तरह से सकीना की दिलजोई की। उसे खाना खिलाया, दूध पिलाया और लारी में बैठा दिया। एक ने अपना कोट उतारकर उसे दे दिया, क्योंकि दुपट्टा न होने के कारण वह बहुत उलझन महसूस कर रही थी और बार-बार बांहों से अपने सीने को ढकने की कोशिश में लगी हुई थी।

कई दिन गुजर गए- सिराजुद्दीन को सकीना की कोई खबर न मिली। वह दिन-भर विभिन्न कैंपों और दफ्तरों के चक्कर काटता रहता, लेकिन कहीं भी उसकी बेटी का पता न चला। रात को वह बहुत देर तक उन रजाकार नौजवानों की कामयाबी के लिए दुआएं मांगता रहता, जिन्होंने उसे यकीन दिलाया था कि अगर सकीना जिंदा हुई तो चंद दिनों में ही उसे ढूंढ निकालेंगे।

एक रोज सिराजुद्दीन ने कैंप में उन नौजवान रजाकारों को देखा। लारी में बैठे थे। सिराजुद्दीन भागा-भागा उनके पास गया। लारी चलने ही वाली थी कि उसने पूछा-बेटा, मेरी सकीना का पता चला?

सबने एक जवाब होकर कहा, चल जाएगा, चल जाएगा। और लारी चला दी। सिराजुद्दीन ने एक बार फिर उन नौजवानों की कामयाबी की दुआ मांगी और उसका जी किसी कदर हलका हो गया।

शाम को करीब कैंप में जहां सिराजुद्दीन बैठा था, उसके पास ही कुछ गड़बड़-सी हुई। चार आदमी कुछ उठाकर ला रहे थे। उसने मालूम किया तो पता चला कि एक लड़की रेलवे लाइन के पास बेहोश पड़ी थी। लोग उसे उठाकर लाए हैं। सिराजुद्दीन उनके पीछे हो लिया। लोगों ने लड़की को अस्पताल वालों के सुपुर्द किया और चले गए।

कुछ देर वह ऐसे ही अस्पताल के बाहर गड़े हुए लकड़ी के खंबे के साथ लगकर खड़ा रहा। फिर आहिस्ता-आहिस्ता अंदर चला गया। कमरे में कोई नहीं था। एक स्ट्रेचर था, जिस पर एक लाश पड़ी थी। सिराजुद्दीन छोटे-छोटे कदम उठाता उसकी तरफ बढ़ा। कमरे में अचानक रोशनी हुई। सिराजुद्दीन ने लाश के जर्द चेहरे पर चमकता हुआ तिल देखा और चिल्लाया-सकीना

डॉक्टर, जिसने कमरे में रोशनी की थी, ने सिराजुद्दीन से पूछा, क्या है?

सिराजुद्दीन के हलक से सिर्फ इस कदर निकल सका, जी मैं…जी मैं…इसका बाप हूं।

डॉक्टर ने स्ट्रेचर पर पड़ी हुई लाश की नब्ज टटोली और सिराजुद्दीन से कहा, खिड़की खोल दो।

सकीना के मुद्रा जिस्म में जुंबिश हुई। बेजान हाथों से उसने इज़ारबंद खोला और सलवार नीचे सरका दी। बूढ़ा सिराजुद्दीन खुशी से चिल्लाया, जिंदा है-मेरी बेटी जिंदा है-। डॉक्टर सिर से पैर तक पसीने में गर्क हो गया।


[14/05, 8:43 a.m.] शांडिल्य सौरभ: 

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*प्राक्कथन* 1⃣

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हम सब विभाजन के बाद की पैदाइश हैं,हम उस पीड़ा को समझ ही नहीं सकते जो उस वक्त के लोगों ने झेली थी।  मंटो उस दौर के रचनाकार हैं जिन्होंने विभाजन की त्रासदी को न केवल सहा बल्कि जिया था। मंटो का जन्म विभाजन से पूर्व अमृतसर में हुआ था। विभाजन का दर्द उनकी लेखनी में जम गया था जब उन्होंने लिखना चाहा दर्द साथ में बह चला। प्रस्तुत कहानी *खोल दो* मुझे छीलती चली जाती है जब पढ़ती हूँ। अजीब से दर्द में डूब जाती हूँ।

ये भी *विभाजन की त्रासदी* का ही एक हिस्सा भर है *कुछ मारे गए, कुछ अपाहिज हो गए,* और *कुछ उस यन्त्रणा से गुजरे, जो न जीवित में रहे न मुर्दा में।*

ऐसी पात्र है *सकीना*।  हो  सकता है औरों को वो सत्रह वर्षीय युवती लगे पर मुझे वो सत्रह साल की बच्ची ही नज़र आती है। उसके तन और मन पर जो बीतती है उसको सोच कर रूह कांप जाती है। खुद को बार बार समझाना पड़ता है ये कहानी है। पर हम सब जानते है कहानी भी घटना से ही बनती है प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से।

जब पहली बार ये कहानी पढ़ी थी अब से शायद 25 साल पहले तब सिर्फ सकीना की पीड़ा को जाना समझा और महसूस किया।
पर उम्र के इस मोड़ पर आकर कहानी को दुबारा से पढ़ा, तो विश्वास कीजिये सकीना से बढ़ कर उसके पिता की पीड़ा लगी।  जिसे नही पता उसकी बेटी के साथ क्या बीता वो किन हालात से गुज़री। वो उन सब में पड़ना भी नही चाहता है, कि सकीना कहाँ थी,कैसे बिछड़ी, कहाँ मिली, उसके जिस्म की हरकत भर से उसको सन्तोष हो जाता है कि बेटी जीवित है। सम्वेदनाओं को झकझोर देने वाला अंत देर तक ट्रॉमा में रखता है।

सआदत हसन मंटो की कहानियों की जितनी चर्चा बीते दशकों में हुई है उतनी शायद उर्द,हिंदी ही क्या दुनिया के दूसरी भाषाओं के कहानीकारों की शायद ही हुई है।

*राजेंद्र यादव कहते थे कि चेख़व* के बाद *मंटो* ही थे जिन्होंने अपनी कहानियों के दम पर अपनी जगह बना ली यानी उन्होंने कोई उपन्यास नहीं लिखा।

*कमलेश्वर* ने उन्हें *दुनिया का सर्वश्रेष्ठ कहानीकार* बताया है।

मंटो पर अश्लीलता के आरोप लगते रहे । उनपर केस भी दायर हुए। इसी के प्रश्न के उत्तर में उन्होंने स्वयं भी कहा है, 
*अगर आपको मेरी कहानियां अश्लील या गंदी लगती हैं, तो जिस समाज में आप रह रहे हैं, वह अश्लील और गंदा है. मेरी कहानियां तो सच दर्शाती हैं.’*

मंटो ने अपनी कहानियों के लिए जेल में समय बिताया और जुर्माने भी भरे। उन्हें समकालीन लेखकों ने अश्लील और भद्दा लेखक कहा।

बोल्ड लेखन मंटो की पहचान है किंतु उसके साथ ही उनकी संवेदनशील लेखनी को भी कम नही आंका जा सकता है।

मानना होगा तमाम आरोपो और विवादों के बाद भी अपनी इस कोशिश में मानवीय संवेदनाओं का सूत्र लेखक के हाथों से एक क्षण के लिए भी नहीं छूटता।

अपनी कहानियों में विभाजन, दंगो और साम्प्रदायिकता पर जितने कटाक्ष मंटो ने किए उसे देखकर महसूस होता है कि कोई कहानीकार सच लिखने के लिए किस हद तक निर्मम हो सकता है। 
उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है –

*”मैं बहुत कम-पढ़ा लिखा आदमी हूँ. वैसे तो मैंने दो दर्जन किताबें लिखी हैं और जिस पर आए दिन मुकदमे चलते रहते हैं. लेकिन जब कलम मेरे हाथ में न हो, तो मैं सिर्फ सआदत हसन होता हूँ!”*

उर्दू के इस लेखक ने बाइस लघु कथा संग्रह, रेडियो नाटक के पांच संग्रह, रचनाओं के तीन संग्रह और व्यक्तिगत रेखाचित्र के दो संग्रह प्रकाशित किए।
इस कहानी के बहाने मंटो को एक बार फिर से तलाशने पढ़ने परखने के मौक़ा देने के लिए शुक्रिया *एडमिन*, शुक्रिया *धागा*।

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                    *सीमा सिंह*

[14/05, 8:44 a.m.] शांडिल्य सौरभ:

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*प्राक्कथन* 2⃣

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सआदत हसन मंटो (11 मई 1912 – 18 जनवरी 1955) उर्दू लेखक थे, जो अपनी लघु कथाओं, बू, खोल दो, ठंडा गोश्त और चर्चित टोबा टेकसिंह के लिए प्रसिद्ध हुए। कहानीकार होने के साथ-साथ वे फिल्म और रेडिया पटकथा लेखक और पत्रकार भी थे। अपने छोटे से जीवनकाल में उन्होंने बाइस लघु कथा संग्रह, एक उपन्यास, रेडियो नाटक के पांच संग्रह, रचनाओं के तीन संग्रह और व्यक्तिगत रेखाचित्र के दो संग्रह प्रकाशित किए।
कहानियों में अश्लीलता के आरोप की वजह से मंटो को छह बार अदालत जाना पड़ा था, जिसमें से तीन बार पाकिस्तान बनने से पहले और बनने के बाद, लेकिन एक भी बार मामला साबित नहीं हो पाया। इनके कुछ कार्यों का दूसरी भाषाओं में भी अनुवाद किया गया है।
 *सआदत हसन मंटो* की कहानियाँ अपने आप में कई विषयों पर वार करती हैं। आज की कहानी में विभाजन की पीड़ा को भी कम शब्दों में बयान करके मुख्य बिंदू उस समय बहती गंगा में हाथ धोने वालों पर किया गया है। दंगों का लाभ उठाकर कैसे लोग अपनी कुत्सित इच्छाओं को पूरा  करते हैं। 
किस तरह एक पुरुष अपना परिवार बिखरते छिन्न भिन्न होते देखता है। फिर भी मन से आस नहीं जाती। ख़ुदाई ताक़त से भरोसा नहीं उठता। अन्जाने में वो बलवाईयों को ही दिल से बार बार दुआएं देता है। और कहते हैं न विधि विधान को छोड़कर दिल से की हुई प्रार्थना जरूर पूरी होती है। और यहाँ पूरी भी हो गई। बर्बादियों की वजह बनने वाले भी अपनी मंशा में सफल हुए।
मिर्ज़ा ग़ालिब का एक शेर याद आता है। *मैं हर वक़्त अपने जीने की खातिर तेरी ज़िन्दगी की दुआ कर रहा हूँ।* 

जीने की वजह तो वही सक़ीना है। और उम्मीद के रूप में फ़रिश्तों का चोला ओढ़े हैवान। 

 रोता गिड़गिड़ाता सिराजुद्दीन के अन्दर का पिता कहीं न कहीं सिहरा तो होगा फिर भी उसने बेटी की सलामती के लिए उनकी दुआ मांगी।

 

 कहानी के शुरुआती अंश को विस्तार देकर हिन्दी फिल्म गदर की आधी कहानी बनी है। और कमल हसन की विश्व रूपम के कुछ दृश्य भी ज़ेहन में उभरते हैं। 

मंटो ने १९४७ में बँटवारे के दौरान ही हिन्दुस्तान छोड़ दिया था। लेकिन बँटवारे का दर्द उनकी कुछ लघुकथाओं और कहानियों में भी देखने को मिलता है। 
इनकी बोल्ड कहानियों के लिए इन्हें अधिकतर याद किया जाता है। पर ये यथास्थिति घटनाओं को रचते थे। मठाधीशों के भय से कोई परिवर्तन नहीं करते थे। 

समसामयिकता दूसरी खासियत थी। इसीलिए पढ़ते समय हम प्रत्यक्ष देखने जैसा भी महसूसते हैं।
*💈धागा💈* का आभार। 😊🙏🏼

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                 *शिखा तिवारी*

[14/05, 9:59 a.m.] Sushil Bhardwaj: मंटो की कहानी “खोल दो” अपने -आप में एक बहुत ही सारगर्भित  कहानी है जो एक साथ कई बिन्दुओं को रेखांकित करती है। कहानी में जहाँ काफी कुछ खुली नजरों से दिखती है वहीं बहुत कुछ ईशारों में कही गई है। याकि बचाव के पक्ष में कोई कह सकता है कि मंटों की यह सबसे बड़ी गलती रही जो शायद बहुत ही साहसी और स्पष्टवादी होने के बाबजूद कहने से चूक गये। यह सच है कि विभाजन एक दंश के रूप में उभरा था जो शायद ही किसी को प्रियकर रहा हो सिवाय राजनेताओं और बलवाइयों और लूटेरों के। राजनेताओं को गद्दी दिख रही थी तो असभ्य या जरूरतमंद मौकापरस्तों को माल-असबाब और अस्मत लूटने का एक बहाना। साम्प्रदायिकता और दंगा जैसे शब्द उन लुटेरों के लिए कितने मायने रखते हैं? प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से उनको क्या स्वार्थ दिखता है यह भी गौरतलब है। निस्वार्थ भाव से कितने कार्य होते हैं मुझे नहीं मालूम लेकिन कहानी से यह जरूर परिलक्षित हो जाता है कि रजकार कितने भलमानस थे? उसे सकीना में न बेचारगी दिखी न तरस की गुंजाईश। दिखी तो सिर्फ शायद उसकी चढ़ती जवानी, जिसकी मदद तो शायद कहीं नहीं दिखती अलबत्ता उसकी पहचान ही उसके मरणासन्न तक के दुःख का कारण जरूर बन गई। वे शोषक हिन्दू थे या मुसलमान या सिर्फ बहशी दरिंदे या फिर नेक -फरिश्ते– यह तो सिर्फ विचार का विषय है। संभव है उन रजकारों ने अपना फरीश्ताई स्वरूप कुछ लोगों को दिखाया हो लेकिन उस दंगें की आग में हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के सरहद को बार-बार पार करने के बदले में वे क्या पा रहे थे ? क्या खो रहे थे शायद किसी को मालूम नहीं और मालूम था तो आवाज उठाने की हिम्मत नहीं। मरणासन्न सकीना यदि हिलती -डुलती है तो जितना मानवता शर्मसार होती है उतनी ही खुशी एक पिता को पुत्री को पा जाने की है। लेकिन क्या जिंदगी यहीं रूक जाती है? नहीं। फटेहाल पिता उसके किस किस जख्म को और किस हद तक किस रूप में भरने की कोशिश करेगा? क्या वह जिंदा बचकर भी किसी जिंदा लाश से कम है?

मंटों की यह कहानी न सिर्फ विभाजन के त्रासदी का चित्रांकन है बल्कि यह समय समय पर समाज में दिखने वाले हर विद्रूप का रेखांकन है।

[14/05, 10:46 a.m.] Gopal Nirdosh: देश के विभाजन की त्रासदी पर लिखी गई सदी की सबसे मर्मांतक कहानी कही जा सकती है सआदत हसन मंटो की कहानी ‘खोल दो’ को। 

       इस कहानी में जिस प्रकार की सांप्रदायिक त्रासदी को प्रस्तुति करने का कार्य किया गया है, उससे देश या समाज को नहीं बल्कि पूरी मानवता को एक सबक देने का कार्य करता प्रतीत होता है कि आतंकवाद का कोई चेहरा या धर्म नहीं होता बल्कि उसका एक मात्र धर्म अराजकता और हिंसा होता है। 

       इस कहानी में सिराजुद्दीन एक मुसलमान पिता ही नहीं है बल्कि वह हर धर्म के एक बाप का प्रतिनिधि है और हर धर्म के आतंक से पीड़ित और आतंकित है। जबकि, सत्रह वर्षीया बालिका सकीना विभाजन के समय भी गैंग रेप का शिकार होती है और आज भी गैंग रेप का शिकार हो रही है। स्पष्ट है कि यह कहानी अपने कथ्य एवं कथ्य-शिल्प के कारण आज भी समीचीन है।

       कहानी के परिप्रेक्ष्य में ये भी कहा जा सकता है कि मंटो ने इस कहानी की पृष्ठभूमि पर इंडिया और पाकिस्तान की जो तस्वीर विभाजन के समय खींची थी, आज भी भारत और पाकिस्तान में बदस्तूर रंग भरा जा रहा है। 

        कहानी-कला की दृष्टि से श्रेष्ठतम कही जा सकती कहानी ‘खोल दो’ ने दो देशों की प्राचीन एवं अर्वाचीन दोनों ही चेहरे पर के पड़े हुए पर्दे को खोल देने का कार्य किया है। दूसरे शब्दों में इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि ऐसा लगता है जैेसे वे हर साल और हर सदी में पल्लवित-पुष्पित अराजकता, वीभत्सता और हिंसा की पृष्ठभूमि पर पनप रहे आतंकवाद वाले किसी भी देश के चेहरे पर पड़े हुए मानवता, विकास और धर्मनिरपेक्षता के पर्दे को खोल देने के लिए अपनी कहानी को ये आदेश दे रहे हैं कि – ‘खोल दो’

        समग्र रूप से यही कहा जा सकता है कि ‘खोल दो’ के बहाने से मंटो को स्मरण करते हुए ‘धागा’ ने जिस प्रकार से कहानी की पूरी एक पाठशाला को ही यहाँ रख देने का कार्य किया है, वह निहायत ही स्वागतयोग्य है…-डॉ. गोपाल निर्दोष🙏

[14/05, 11:46 a.m.] Dipak mishra Wtsp: सम्वेदनशीलता , किसी भी रचनाकार जी प्रथमतः और अनिवार्य शर्त है। लेकिन बहुत थोड़े रचनाकार हैं जिन्होंने अपनी कृतियों से पुरे मानवता को उद्वेलित किया हो। एक अनिवर्चनीय निःसंगता चाहिए तो पीड़ित मानवता के प्रति गहनतम सहानुभूति रखे। मंटो , गरचे अपने सोच में घनघोर अराजक थे, एक भूतपूर्व कम्युनिस्ट, लेकिन अपनी कहानियों में वैसा जादू पैदा करते थे जो उन्हें विश्व साहित्य का एक अनिवार्य हिस्सा बनाती है। 

बहुधा पीड़ा की अधिकता हमे सुन्न कर देती है और निर्वाक, लेकिन मंटो सरीखा साहित्यकार, अपने वैयक्तिक पीड़ा को पूरी कौम की पीड़ा के रूप में अभिव्यक्त करता है। जैसे अन्ना आखमतोवा की रिक्विम। त्रासदी के बाद का शांति पाठ जो समूची मानवता का शोक गीत है। इस विलाप में, शोक, स्मृति, याचना, आक्रोश अंतिम उम्मीद का भी विनष्ट ही जाना समाहित है। 

सकीना एक पात्र ही नही है, वह एक देश के क्षत – विक्षत आत्मा का करुणतम विलाप है। बलात्कार उसके शरीर से ही नही किया गया, मानवता की आत्मा के साथ भी घटित हुआ। यह मंटो की कलम का कमाल है कि लगभग हर पाठक सकीना की पीड़ा को लगभग उसी शिद्दत से महसूस करता है और जीने लगता है। 

हालिया समय मे, निर्भया दुष्कांड हुआ, पूरे देश के आत्मा को कंपा गया। आज के अखबार में खबर है, “रोहतक में एक और निर्भया कांड”। क्या पूरे देश हीं विक्षिप्त हो गया है/संवेदनशून्य। क्या इन घटनाओं को हम चाय की प्याली के साथ पी जाएंगे और ख़ुश्किमती मनाएंगे ???

मंटो की कहानी हमारे मृतप्रायः सम्वेदनशीलता को सुगबुगा दे तो उसकी सफलता है।

[14/05, 11:56 a.m.] शांडिल्य सौरभ: एक बार पीरियड लिव पर हमनें अनिता मिश्रा का एक आलेख लगाना तय किया था। एडमिन पैनल में उस समय कई वैसे सदस्य थे जो अभी के एडमिन पैनल में नहीं हैं। उस समय उस आलेख का ज़बर्दत विरोध हुआ था।
लिहाफ़ कहानी लगाई तब कहानी पर संवाद के बाद लोग ने मेरी खूब लानत लमानत की थी।😝🤣
इस कहानी पर भी कुछ लोग ने प्रश्न किए। बोल्डनेस को ले कर शायद उन्हें आपत्ति रही होगी।
अद्भुत बात यह है कि इन तीनों संदर्भो में महिला सदस्यों ने खुल कर लिखा। आज का उदाहरण ही लें कि ग्रुप ओपन किया सीमा जी एवं शिखा दी ने।

[14/05, 12:18 p.m.] Seema Singh: मंटो की कथा/कथाओं की आत्मा को समझने के लिए उनकी आत्मा के स्तर तक जाना होगा,सरसरी नज़र में वे अश्लील दिखती हैं इसमें दो राय नही पर उनकी सम्वेदनाओं को समझने के लिए उस अश्लीलता का भी सम्वेदतात्मक पहलू समझना होगा! किसी भी रचना को नकार देना सबसे आसान रास्ता होता है। मुश्किल तो उसमें से लेखकीय अभव्यक्ति को पकड़ कर परखना है।

[14/05, 12:27 p.m.] Seema Singh: फिर जो व्यक्ति अपनी सफाई देने को को हमारे बीच है ही नही तो उसके दोष क्या निकालने, उसकी रचनाओं में वो देखें न! जो वो दिखाना चाहता है।

 व्यक्तिगत स्तर पर मैं अश्लीलता की घोर विरोधी हूँ  मुझे साहित्य के नाम पर अश्लीलता परोसने से  चिढ़ है फिर भी मैं मंटो की प्रशंसक हूँ उन्होंने सम्वेदना का वह स्तर छुआ अपनी रचनाओं से जो हमारी आत्मा छिंझोड़ कर रख देता है उस समय कम से मेरी दृष्टि तो अश्लीलता पर नहीं टिकती सम्वेदना मेरा पूरा ध्यान अपनी ओर खींच लेने में समर्थ होती है।

 यूँ भी अगर हम पुरानी चीजों में बदलाव नही कर सकते तो स्वयं को ही हंस क्यो न बना लें।

[14/05, 12:35 p.m.] Awadhesh Preet: सहमत । मंटो पर अश्लीलता के मुकदमे चले । उसने इस बाबत कोर्ट में जो दलील दी , वह अश्लील- श्लील का सटीक जवाब है ।

[14/05, 12:43 p.m.] Anita Manda: मंटो अपने समय से आगे के कहानीकार थे। बहुत संवेदनशील इंसान, जो देखा उसे उसी तासीर के साथ कागज़ पर उतारने में सिद्धहस्त। शब्दों को कहाँ कितना खर्च करना है, इसके प्रति सजग, समाज के प्रति अपने कर्तव्य के लिए जागरूक।

खोल दो कहानी हमारी चेतना को झकझोरने की क्षमता रखती है।

[14/05, 12:47 p.m.] Leena Melhotra: पाठक कहानी के साथ कदम दर कदम हर्फ़ दर हर्फ़ चलता है। यह कहानी देशकाल और समय की सीमा का अतिक्रमण करती है। मानव  की पाशविक प्रव्रतियों और त्रासद अहसास को एक साथ  रेखांकित करती है। एक अच्छा लेखक न केवल वर्तमान बल्कि भविषयदर्शा होता है  वह जानता है कि मानवीय सम्बन्ध हमेशा आदर्श एयर मधुर नही होते अयाचित खूंखार जटिल  परिस्थितियां ही मनुष्य के दृढ़ चरित्र और संकल्प की जांच करती है। ऐसे में मंटो एक ऐसे पिता के चरित्र का निर्माण करते हैं जो बलत्कार से इज्जत लुट गई के प्रलाप के बनिस्पत अदम्य जीवन दृष्टि से जीवन की महत्ता को सर्वोपरि स्थापित करता है।  वर्तमान परिस्थितियों में खाप और संकीर्ण विचारधारा की तोड़फोड़ के लिए ऐसे पात्र  आदर्शवादी ही नही अभीप्सित भी है। दीपक जी ने बहुत बढ़िया लिखा है। संयोग की बात है कि कल ही में रिकविम पढ़ रही थी।

[14/05, 12:55 p.m.] शांडिल्य सौरभ: सकीना का कैरेक्टराइजेशन जिस तरह लीना दी ने किया, आप समझ सकते हैं वह किस संत्रास को जी रही होगी। यही वह दृष्टि है जिससे कोई निर्देशक किसी कैरेक्टर को बीयूल्ड करता है। यह टिप्पणी लीना दी के अंदर के लेखक का नहीं बल्कि उनके अंदर के डायरेक्टर का है।😊☺

[14/05, 1:11 p.m.] Shweta Shekhar: दिल को झकझोर कर रख दिया इस कहानी ने।पढ़ कर मन में उबाल सा उठ रहा है।सकीना हर उस लड़की का प्रतिनिधित्व कर रही है जो हालात की शिकार है और विक्षिप्त हो जाने को मजबूर।भले ही कहानी दशकों पहले लिखी गई हो पर समाज में व्याप्त दरिदंगी और असंवेदनशीलता आज भी कई सकीनाओं को आस-पास दिखला जाती है।कहानी पढ़ कर मन की बैचैनी और उदासी बढ़  गई है।बस एक ही सवाल मन में कौंध रहा है ,आखिर कब तक…लोग वासनाओं के आदिम युग में जीते रहेंगे और क्या ऐसे लोग इंसान कहलाने लायक हैं?और सबसे बड़ी बात इस समस्या का समाधान क्या हो,इस पर परिचर्चा जरूर हो।

[14/05, 1:15 p.m.] शांडिल्य सौरभ: श्वेता जी के टिप्पणी की भाषा बता रही है कि संवेदना के किस स्तर पर कहानी कंसीव किया है उन्होंने। बहुत रोष है आज के जनरेशन में। शुक्रिया साथी🙏🏽

[14/05, 2:48 p.m.] Tabassum Ji: सआदत हसन मन्टो की ये कहानी आज भी उतनी ही प्रसांगिक है जितनी उस समय थी जब लिखी गयी थी।वक़्त ज़रूर बदल गया है लेकिन आज भी ऐसे दरिंदे समाज में मौजूद हैं जो ऐसे मौके की तलाश में रहते हैं जहाँ वो अपनी दरिंदगी दिखा सकें।मंटो ने इस कहानी के माध्यम से इस कथन को पुष्ट किया है कि शैतान शैतान ही होते हैं किसी भी मजहब से उनका कोई वास्ता नही होता।ऐसी एक घटना हरियाणा के जाट आंदोलन के समय भी प्रकाश में आई थी जहाँ आन्दोंलकारी जो अपने समुदाय के हित के लिए उतरे थे लेकिन वहां भी कुछ लोगों ने ऐसे वहशियाना काम अंजाम दिया।ये सिलसिला अनवरत जारी है।कहानी में एक पिता का दर्द इस क़दर झिंझोड़ता है कि आँखें नम हो जाती हैं।वो ऐसे लोगों की कामयाबी की दुआ कर रहा होता है जो उसकी बेटी के साथ दरिंदगी का रहे थे।कहानी का अंत पाठक को क्षोभ और गुस्से से भर देता है।

मन्टो उर्दू के लेख़क थे ।उन्होंने अपनी कहानियों में मज़हब या मुल्क के बारे में नही लिखा दोनों मुल्कों को जोड़ कर मानवीय संवेदना को लिखा।विवादित होने के बावजूद वो आज भी सराहे जाते हैं तो इसका कारण वो सच्चाई है जिसे उन्होंने अपनी कहानियों के ज़रिये समाज के सामने लाने की कोशिश की।

[14/05, 2:58 p.m.] Awadhesh Preet: मंटो की कहानियों की तासीर एक बेचैन रूह की चीख सी है । उनकी तमामतर कहानियों में टोबा टेक सिंह, ठंडा गोश्त और खोल दो इसकी मिसाल हैं । उनकी लघुकथाओं में भी यह तपिश दिखती है। यहां प्रस्तुत कहानी खोल दो पर मित्रों ने बेहतरीन और बारीक नुक्त ए नज़र से अपनी बात रखी है । ये काबिले तारीफ है । सीमा सिंह और शिखा तिवारी के प्राक्कथन चकित करते हैं । मंटो की बेचैनी को इन टिपण्णियों में रेखांकित करने की कोशिश साफ दिखती है। दीपक की टिपण्णी एक लेखक के सार्वकालिक होने की वज़हों के के जरिये मंटो की मकबूलियत को बखूबी बयान किया है । लीना जी ने सही कहा कि यह कहानी देश काल की सीमाओं का अतिक्रमण करती है । जाहिर है , इसीलिए मंटो हमारी आत्मा का सर्जन है । तो अब इस कहानी पर कहने को क्या बचा ? दुहराव क्यों करें?. बहरहाल , यह कहानी जितनी विभाजन की त्रासदी में मनुष्यता के शर्मशार होने की है, जितनी सकीना के बूढ़े बाप की असहायता और उम्मीद की है, उतना ही या कि उससे कहीं ज्यादा सकीना की है । सकीना दो मुल्कों के विभाजन के वहशीपन की शिकार है । वह बलात्कार की जिस दरिंदगी से गुजरी है, बार- बार जिस वहशत से गुजरी है, उससे वह एक ऐसे ट्राॅमा में जा चुकी है, कि उसके लिए खोल दो का मतलब खिड़की खोलने से नहीं है, इजा़रबंद खोलने से है । यह एक स्त्री का इजा़रबंद खोलना भर नहीं है,  बल्कि अस्पताल में अवसन्न पड़ी हमारी शर्म , सभ्यता का बेपर्द होना है । मंटो कहानी में अपनी बात कहने के लिए न तो सकीना को केंद्र में रखता है, न उसके बलात्कार के डिटेल्स को । वह एक ज़हीन किस्सागो की तरह माहौल खड़ा करता है । और सूरते हाल के स्याह सफेद किरदारों से रूबरू कराता है और वहशत के इस खौफ़नाक मंज़र में सकीना की बरामदगी के ज़रिये कहानी को अपने मक़सद की ऊंचाई पर ला खड़ा करता है। यह मास्टर स्टोरी टेलर की  खा़सियत है । देखनेवाली बात यह है कि इस कहानी में मंटो ने विभाजन, और दंगे में हिन्दू- मुस्लिम के बीच के वहशीपन को नहीं रखा है । बल्कि कैंपों में मदद के नाम पर काम कर सहे रजाकारों की ओर इशारा किया है । इस बाबत सुशील ने अपनी टिपण्णी में संकेत किया है । जा़हिर है मंटो ने वहशियों को मजहबी जामे में नहीं महदूद किया है , बल्कि प्रकारांतर से उन्होंने बताया है कि दरिंदे इधर भी हैं , उधर भी हैं । पराये तो पराये , अपनो में दरिंदों की कोई कमी नहीं कि दरिंदों की कोई जात नहीं होती । सबसे मार्मिक बात यह कि मदद के नाम पर भी वहशियों की कमी नहीं । सकीना सभ्यता के अस्पताल में पड़ी अवसन्न औरत नहीं हमारी आत्मा है ।

ये मेरी समझ का एक नज़रिया है । ज़रूरी नहीं कि सहमत हुआ जाय । हां,  मैं एक बात ज़रूर कहना चाहूंगा , मंटो कहते थे , मेरे जिस्म का दर्जा ए हरारत हमेशा एक डिग्री ज्यादा रहता है । यह कहानी भी क्या सामान्य दर्जा ए हरारत से ऊपर नहीं है ? 

एडमिन पैनल को इस कहानी के लिए शुक्रिया । 🙏

[14/05, 6:05 p.m.] Dipak mishra Wtsp: एक कहानी के कई पाठ होते हैं अन्तरपाठ भी, देरिदा के शव्दों में क्लोज़ रीडिंग कई कई टेक्सतुळ सत्ताओं को व्याख्यायित करती हैं। खुद एक सिद्धहस्त कहानीकार होने के नाते आपका अन्तरपाठ कई कई नए अनुद्घाटित आयाम  खोलता है। इस विरल अंतर्दृष्टि के लिए 👏👏👏👏👏

[14/05, 7:43 p.m.] Anil Analhatu: मन्टो की कहानियों के क्राफ्ट को समझना हो,उसकी महीन बनावट और बुनावट को जानना हो,कहानी को कला के उत्पाद के रूप में ढालने की कला की परख करनी हो , किसी लेखक को यह सीखना हो कि किसी कथावस्तु को कैसे कहानी के शिल्प में ढाले, तो मेरे ख्याल में सिर्फ मन्टो की यह कहानी ही पर्याप्त है, यह मन्टो की सिग्नेचर रचना है।मन्टो का ‘कहानीकार’ अपनी सम्पूर्णता में इस कहानी में दिख पड़ता है। कहानी कहने की तमीज़ और शब्दों के व्यवहार और मितव्ययिता का इससे उत्कृष्ट उदहारण अन्यत्र नहीं है।आखिर मन्टो ने  फ्लैशबैक के शिल्प को ही क्यों चुना? क्या वे भारत विभाजन की व्यथा-कथा लिख रहे थे? या हिन्दू साम्प्रदायिकता की वीभत्सता दिखलाना चाहते थे ? जो सकीना की माँ की लाश की बाहर निकली हुई अंतड़ियों में अपनी दरिंदगी दिखला रहा था।

या बाप और बेटी के स्नेहिल मानवीय रिश्तों की ऊष्णता और लगाव के जुनून को दिखलाना चाहते थे ,जहां सकीना को खोकर सिराजुद्दीन ख़ब्तुलहवास बना हुआ है? 

तो सामयीन! यह सिराजुद्दीन पिता के तड़प, पीड़ा और अंतहीन वेदना की कहानी तो है ही, साथ ही भारत विभाजन की त्रासदी और मानवीयता के लोप की कथा भी है, यह साम्प्रदायिक दंगों और बलवाइयों की अमानवीयता और दरिंदगी की भी कथा है , लेकिन बन्धुओं ! मुझे कहने दीजिए , मैं चीखना चाहता हूँ – असल में यह कहानी ,उन आठ रजाकार मुसलमान  नौजवानों की है ,जिनके पास लाठियां थीं, बंदूकें थीं,जो अपनी जान हथेली पर रखकर कई बार अमृतसर (हिंदुस्तान) गए और कई मर्दों और कई बच्चों को निकाल- निकालकर उन्हें सुरक्षित जगहों पर पहुँचाया।

अब मेरा प्रश्न है, वे रजाकार फ़रिश्ते सदृश नौजवान क्या मुसलमान थे? क्या वे दंगों में पीड़ित मुसलामानों के मददगार थे ? या वे मुस्लिम साम्प्रदायिक दंगाई या बलवाई थे? मन्टो ने कहीं नहीं लिखा है कि वे आठ रजाकार नौजवान मुसलमान थे और न यह लिखा है कि वे दंगाई और बलवाई थे बल्कि उन्होंने यह बताया( जैसा तमाम लोग और सिराजुद्दीन खुद भी समझ रहा था ) कि वे कैम्पों में रहनेवाले, विभाजन के दंगों में पीड़ित मुसलामानों के मददगार थे । जी हाँ , वे मददगार थे ,मन्टो ने इन्हीं मददगारों की यह कथा लिखी है । जनाब ज़रा गौर से पढ़ें और कथा-पंक्तियों के बीच सिसकती सकीना को खोजने का प्रयास करें , बॉर्डर के इस पार के दंगाइयों ने उसकी माँ की सारी अंतड़ियां बाहर निकाल दी हैं ,किन्तु बॉर्डर के उसपार ??

 जी हाँ ,श्रीमान आप ठीक समझें, मन्टो यही कहना चाह रहे हैं-  कि दंगाईयों का कोई चेहरा नहीं होता ? उनका कोई मज़हब नहीं होता ? वे किसी कौम के नहीं होते? न उनका कोई ईमान होता है न राष्ट्र । वे गुंडे, दरिंदे और वहशी होते हैं , चाहे वे सीमा रेखा के इस पार हों या उस पार ।दंगाई और बलवाई आम आदमी या नागरिक नहीं होता है , ये दंगाई और बलवाई वे गुंडे,बदमाश ,वहशी और दरिंदे होते हैं जो मजहब और संप्रदाय के नाम पर दोनों तरफ और दोनों में लूट मचाते हैं। 

मंटो अपने शब्दों में चीखना चाहते हैं कि सकीना हिंदुस्तान में हिन्दू दंगाइयों से अगर बच भी गई तो पाकिस्तान में मुस्लिम दंगाइयों से नहीं बच सकती ।उन तथाकथित आठ रजाकार नौजवानों ने कितने दिनों तक ,किस वीभत्सता से ,सत्रह साल की एक मासूम बच्ची से कितनी बार  गैंग रेप किया जो उसके अवचेतन ही नहीं ,अचेतन में भी उसकी पीड़ा और यंत्रणा इस कदर पैबस्त हो गई कि डॉक्टर के खिड़की ‘खोल दो’ की आवाज़ होते ही उसके मुर्दा ज़िस्म में , उसकी लाश  में भी हरकत में आ जाती है । क्या आपके सामने दिल्ली का निर्भया काण्ड अपनी पूरी दरिंदगी और वीभत्सता में दुहरा नहीं जाता ? कहानी के अंत पर गौर करें- ” डॉक्टर सिर से पैर तक पसीने में गर्क हो गया।” आखिर क्यों? क्योंकि डॉक्टर ने स्ट्रेचर पर पड़ी हुई लाश की नब्ज़ टटोली थी और तब सिराजुद्दीन से कहा था कि खिड़की खोल दो।और उसी लाश की बेजान हाथों में जुम्बिश होती है – इज़ारबंद खोलती है और सलवार नीचे सरका देती है। यह पूरा दृश्य पाठकों के रोंगटे खड़े कर देता है, आँखों के आगे अँधेरा छा जाता है। 

मन्टो ने इस कहानी में सकीना की सलवार नहीं साम्प्रदायिकता के मजहबी चेहरे को खोल दिया है , धर्म का नकाब पहने दरिंदों के चेहरों से मुखौटा नोच लिया है और उनके वहशीपन और दरिंदगी को उसकी पूरी वीभत्सता में उघाड़ दिया है।

[14/05, 8:08 p.m.] Dipak mishra Wtsp: अनिल भाई न सिर्फ आपने एक नए परिप्रेक्ष्य  से कहानी को खोला है , इसमें विन्यस्त अनेक परतो को भी एकदम  से साफ कर दिया। रजकरो के डीएनए की पड़ताल भी अद्भुत है।

[14/05, 8:09 p.m.] Jankie Wahie: सभी ने मन्टो की कहानी पर इतनी अच्छी समीक्षा की ,कि अब लिखने को कुछ न बीच पर पढ़ने और सहेजने को बहुत कुछ है।सभी को बेहतरीन समीक्षा के लिए दिल से आभार।😊🙏

[14/05, 8:13 p.m.] Anuj Anuj: सकीना के मुद्रा जिस्म में जुंबिश हुई। बेजान हाथों से उसने इज़ारबंद खोला और सलवार नीचे सरका दी। बूढ़ा सिराजुद्दीन खुशी से चिल्लाया, जिंदा है-मेरी बेटी जिंदा है-। डॉक्टर सिर से पैर तक पसीने में गर्क हो गया।

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जैसा कि अनिल सर ने कहा, आदमी दहल जाता है अंदर-बहुत भीतर तक, कहानीकार ने मानों जिया भोगा हो। यह इंटेंसिटी वह पाठक में भी इंजेक्ट करने में कामयाब होता है। 

शब्द नहीं, केवल जज़्ब कर जाने को होती हैं, ऐसी कहानियां। 

पागल था मंटो, इसलिए इतनी शिद्दत से लिख पाया।

[14/05, 8:18 p.m.] Shikha Tiwari: अनिल जी ने कहानी के एक और पक्ष को उजागर किया है। 

रजाकार नौजवानों का पक्ष। जो न हिन्दू-मुस्लिम थे न किसी भी सम्प्रदाय से सम्बंधित थे। वो सरहद के इस पार या उस पार सिर्फ बलवाई थे। 

शुक्रिया  सर 🙏🏼😊

[14/05, 8:27 p.m.] Seema Singh: वाकई शिल्प पर  भी सीखने को बहुत कुछ है इस कहानी में…

आपने बहुत अच्छी तरह कहानी का अनकहा पक्ष भी स्पष्ट कर दिया अनिल जी, सादर आभार।

[14/05, 8:36 p.m.] Gopal Nirdosh: ‘खोल दो’ ने खोल के रख दिया आज कलमकारों के भावों, विचारों और शिथिल पड़ी लेखनी को, तभी तो आज इतनी भारी तादाद में इस मंच पर लोगों ने शिरकत किया और इसके लिए जी-भर कर की-बोर्ड पर अपनी ऊँगलियाँ चलाईं, फलतः इतनी सारी प्रतिक्रियाएँ आईं…सबों का हार्दिक स्वागत🙏

[14/05, 8:49 p.m.] Leena Melhotra: अनिलजी आप कविता और कहानी को जिस विशिष्ट  तरीक़े से डिकोड करते हैं वह आपकी आलोचक के रूप में अलग पहचान बना रहा है। अवधेश जी का लिखा पढने की प्रतीक्षा रहती है। और सब मियरों ने भी अद्भुत लिखा है। ऐसी कालजयी रचनाओं पर चर्चा न केवळ हमे समृद्ध करती है बल्कि हमारे लेखन के शिल्प के लिए भी एक पाठ की तरह है। धन्यवाद धागा।

[14/05, 8:55 p.m.] Paritosh: मंटो की यह कहानी ‘खोल दो’  सिर्फ एक कहानी ही नहीं बल्कि समाज का एक काला जीता जागता सच है, जिसे हम आये दिन देख रहे हैं, भोग रहे हैं झेल रहे हैं, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों ही रुपों में।

मंटों एक दूरदर्शी, गंभीर और बेहद संवेदनशील कहानीकार रहे हैं, जिनकी तमाम कहानियाँ पाठक को अंतः तक झकझोर कर रख देती है।

[14/05, 10:43 p.m.] शांडिल्य सौरभ: 🔴 *कई ऐसे सदस्य हैं जो घनघोर निद्रा में हैं। ऐसे तमाम सदस्यों से निवेदन है कि जल्द उपस्थिति दें।* 🔴

[15/05, 4:06 a.m.] पंखुड़ी सिन्हा: Ye manto ke janmdin ke itne din baad, ye kahani kahan se aayi?

[15/05, 4:08 a.m.] पंखुड़ी सिन्हा: Khol do ke jawab mein, jab gaadi ka sheesha bina khulwaaye, goli chalayi jaati hai, ya joota kholkar maara jaata hai, tab logon ko samajh mein aata hai, uske bina nahi

[15/05, 7:17 a.m.] शांडिल्य सौरभ: शुक्रिया पंखुरी जी 😊🙏🏽

आपकी सक्रियता हमें उत्साहित करती है।

[15/05, 7:23 a.m.] शांडिल्य सौरभ: हम जनमदिन-मरन दिन जयंती वगैरह में विश्वास नहीं करते। एक बड़ा उदाहरण नोट बंदी का है कि नोटबन्दी की घोषणा के तुरत बाद कई सदस्यों ने सुझाव दिया कि हम कल नोटबन्दी पर संवाद रखें,  नोटबन्दी के 15वें दिन बैठे और यादगार संवाद हुआ।
 ऐसा नहीं है कि कसम खा के बैठे हैं हल्दी पानी की कि जयंती आदि पर कभी चर्चा ही नहीं करेंगे। 
बाक़ी आप हमारे लिए अनिवार्य सदस्य हैं💚

[15/05, 7:45 a.m.] शांडिल्य सौरभ: कल के यादगार संवाद का पूरा श्रेय @⁨Anita Manda⁩  जी को जाता है। कहानी उन्होंने उपलब्ध कराई थी। आप हाल की जुड़ी पर बेहद सुलझी और दृष्टि संपन्न सदस्य हैं। बेहद कम समय में आपने 💈 *धागा* 💈 को आत्मसात किया यह हमारी उपलब्धि है।

[15/05, 7:48 a.m.] Anil Analhatu: सर, भरोसा तो मेरा बढ़ जाता है। आपको पढ़ना हमेशा ही खुद को समृद्ध करना होता है और वह भी न सिर्फ कंटेंट के स्तर पर बल्कि भाषा व् शब्दों को बरतने का स्किल कोई आपसे सीखे। आपकी भाषा का आस्वाद और मिजाज बिल्कुल अलहदा और अद्भुत है। 🙏🏻🙏🏻

[15/05, 8:06 a.m.] शांडिल्य सौरभ: @⁨Leena Melhotra⁩ दी

@⁨Anil Analhatu⁩ भइया

@⁨Sharad Kokas⁩ भइया
कविताओं को कैसे डिकोड करें इस विषय पर आप तीनों से एक एक आलेख चाहिए।❤

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